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शिशु में वाटर इंटॉक्सिकेशन क्या है? जानें इसके कारण, लक्षण और बचाव के उपाय

शिशु में वाटर इंटॉक्सिकेशन क्या है? जानें इसके कारण, लक्षण और बचाव के उपाय

1 Feb 2022 | 1 min Read

Mousumi Dutta

Author | 387 Articles

हम सब जानते हैं कि पानी हमारा जीवन होता है। हमें दिन में कम से कम 8-10 गिलास पानी पीने की सलाह दी जाती है। लेकिन क्या यह नियम शिशुओं पर भी लागू होता है? एक्सपर्ट्स का कहना है कि 6 महीने तक शिशुओं को पानी देने की जरूरत नहीं होती है। जब से ठोस खाद्य पदार्थ देना शुरू करते हैं, तब से शिशु को पानी पिलाना शुरू करना चाहिए। लेकिन आपको पता नहीं कि शिशु को 6 महीने से पहले या बाद में जरूरत से ज्यादा पानी पिलाने से वाटर इंटॉक्सिकेशन की समस्या हो सकती है। तो चलिए आगे जानते हैं कि शिशुओं को वाटर इंटॉक्सिकेशन की समस्या क्यों होती है, उसके क्या लक्षण हैं, कैसे इस समस्या से बचा जा सकता है आदि।

असल में लगभग 6 महीने पहले तक शिशु माँ के दूध पर पूरी तरह से निर्भर रहता है। माँ के दूध में लगभग 80% पानी की मात्रा होती है, जो शिशु को हाइड्रेटेड रखने के लिए काफी होती है। माँ के दूध के जगह पर यदि शिशु फार्मूला मिल्क पीता है तो उसको बनाने के लिए जितने पानी की जरूरत होती है वह शिशु के पानी की जरूरत को लगभग पूरा कर देता है।

लगभग 6 महीने से शिशु को सॉलिड फूड्स यानि अनाज आदि देना शुरू कर दिया जाता है, इसलिए तब से थोड़ा पानी देना शुरू कर सकते हैं। लेकिन माँ को यह जानकारी होनी जरूरी है कि किस महीने से कितनी मात्रा में शिशु को पानी पिलानी चाहिए, नहीं तो वाटर इंटॉक्सिकेशन की परेशानी से शिशु को जुझना पड़ सकता है। अब जानते हैं कि आखिर वाटर इंटॉक्सिकेशन है क्या?

वाटर इंटॉक्सिकेशन (Water Intoxication)क्या होता है?

असल में वाटर इंटॉक्सिकेशन वह अवस्था है जब शिशु को तरल पदार्थ या पानी जरूरत से ज्यादा पिला दी जाती है। यह तो आप जानते ही हैं कि 6 महीने से पहले तक शिशु का पेट बहुत छोटा होता है। पानी पिलाने पर उसका पेट इतना भर जाता है कि इसके बाद दूध पीने के लिए जगह ही नहीं बचती। दूध नहीं पीने के कारण शिशु में पोषण की कमी हो जाती है, और वह कुपोषण का शिकार हो जाता है।

अब दूध कम पीने के कारण वजन कम होने लगता है और बिलीरुबिन का स्तर बढ़ जाता है। शिशु को पीने के लिए ज्यादा पानी देने से वाटर इंटोक्सिकेशन होने के खतरा रहता है। पानी की मात्रा शिशु के शरीर में ज्यादा होने से सोडियम और इलेक्ट्रोलाइट का स्तर बाधित होता है, जिसका असर उस पर भयानक हो सकता है।

वाटर इंटॉक्सिकेशन के लक्षण

शिशु वाटर इंटॉक्सिकेशन की समस्या से जुझ रहा है, इस समस्या को समझने के लिए लक्षणों को भी समझने की जरूरत है।

  • शरीर का तापमान गिर जाना- अगर शिशु के शरीर का तापमान 97० डिग्री फारेनहाइट से नीचे चला गया है तो संभल जाइए।
  • चिड़चिड़ापन- शरीर में पानी की मात्रा की अधिकता होने के कारण इलेक्ट्रोलाइट का बैलेंस बिगड़ जाता है, जिसका असर दिमाग पर पड़ता है।
  • चेहरे पर सूजन आना- वाटर इंटॉक्सिकेशन के कारण शरीर सोडियम ज्यादा बाहर निकालने लगता है, जिसके कारण शिशु के चेहरे पर सूजन आ जाती है।
  • हाइपोनेट्रेमिया– इसके अलावा 6 महीने से पहले पानी पिलाने से हाइपोनेट्रेमिया यानि रक्त में नमक की कमी भी हो सकती है। जिसके कारण सिरदर्द, बेचैनी, आँखों में धुंधलापन, सुस्ती, मांसपेशियों में कंपकंपी, दस्त, तेज बुखार, पसीना न निकलने जैसी बहुत सारी समस्याएं हो सकती हैं।
  • अगर परिस्थिति ज्यादा खराब हो गई तो मृत्यु की संभावना भी रहती है।

वाटर इंटॉक्सिकेशन होने का कारण:

वाटर इंटॉक्सिकेशन के लक्षणों के बारे में जानने के बाद आपको यह भी पता होना चाहिए कि यह माता-पिता अनजाने में ऐसी क्या गलती कर बैठते हैं कि इस अवस्था का सामना करना पड़ जाता है-

अतिरिक्त पानी पिलाने की गलती- यह तो हम पहले की बता चुके हैं कि छह महीने के पहले तक माँ का दूध या फॉर्मूला दूध ही शिशु के पानी की जरूरत को पूरा कर देता है। लेकिन अगर माँ अलग से फलों का रस या जूस देने की गलती करती हैं तो यह समस्या आ सकती है।

फॉर्मूला मिल्क बनाते समय ज्यादा पानी देने की गलती- अक्सर फॉर्मूला मिल्क बनाते समय निर्देशों का सही तरह से पालन न करके इसको बनाते वक्त ज्यादा पानी दे दिया जाता है, यह वाटर इंटॉक्सिकेशन का कारण बन जाता है।

कप में पानी पिलाने की आदत- बच्चा जब पानी पीना शुरू करता है तब माता-पिता खुश होकर कप में जरूरत से ज्यादा पानी पिलाने की गलती कर बैठते हैं।

अब तक आप समझ ही गए होंगे कि क्यों वाटर इंटॉक्सिकेशन की समस्या शुरू होती है। इसलिए शिशु को पानी पिलाते वक्त यह बात ध्यान रखें कि 6 महीने से पहले पानी पिलाने की जरूरत नहीं और 7 वें महीने के बाद से लगभग 2-4 ओंस पानी की मात्रा शिशु को हाइड्रेटेड रहने के लिए काफी होता है।

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